डॉ. शोभनाथ पाठक कृत एकलव्य: उद्दात विचारों की अवधारणा

Keywords : भील, हिरण्यधनु, आदिवासी, अमराई, धनुर्विद्या, कौरव-पांडव, अट्टहास, पारंगत, कंटकाकीर्ण आदि ।


Abstract

पौराणिक कथाएँ अनेक हैं, उनमें रामायण और महाभारत सर्वश्रेष्ट हैं इन कथाओं में से प्रत्येक पात्र अपने-अपने स्थान पर योग्य है और सफल भी है चाहे वह पात्र प्रमुख हो या गौण साहित्य का अर्थ ही हित करने वाला है बुराई के होने से ही अच्छाई का महत्व सामने आता है अधर्म है इसीलिए तो धर्म को महत्व है उसी प्रकार असत्य है इसीलिए तो सत्य का स्थान सर्वोपरि है रचनाकार उक्त सभी विचारों पर विचार करता है फिर अपनी अभिव्यक्ति कर पाता है अपने विचारों को प्रकट करने हेतु अलग अलग पात्रों का निर्माण करते हैं फिर अपनी सृजनता को सफल बनाते हैं एकलव्य भी ऐसा ही एक महत्वपूर्ण पात्र है जिसे पाठकजी ने अपने विचारों के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है एकलव्य की श्रेष्ठता अनन्य साधारण है वह एक श्रेष्ठ धनुर्धारी है जो अछूत होने के कारण गुरु शिक्षा से वंचित रहता है लेकिन उसकी विशेषता यह है की गुरु द्रोण उसे शिक्षा देने से इंकार करने पर वह गुरु द्रोण की मिट्टी की प्रतिकृति तैयार करता है हर रोज उस पुतले को ही वंदन करता है और रात दिन कठिन परिश्रम करके श्रेष्ठ धनुर्धारी बन जाता है दुख की बात यह है की जब गुरु द्रोण यह बात जान जाते हैं कि अपने प्रिय शिष्य अर्जुन से भी श्रेष्ठ कोई दूसरा धनुर्धारी है तो वे छल करके गुरु दक्षिणा में एकलव्य से अंगूठा माँग लेते हैं विचार करने की बात यह है कि कोई गुरु इतना कठोर कैसे हो सकता है ? पाठक जी ने इस काव्य में छुआछूत को मिटाने का प्रयास तो किया ही है साथ ही साथ गुरु द्रोण की निर्धनता के कारण एक अच्छे गुरु की विवशता पर भी नजर डाली है उसी प्रकार एकलव्य की गुरु भक्ति को भी सर्वश्रेष्ठ दर्जा देते हुए गुरु-शिष्य के बीच के स्नेह को उजागर किया है और गुरु के प्रति समर्पित भाव पर प्रकाश डाला है इस कृति के द्वारा एकलव्य के उद्दात विचारों की अवधारणा को स्पष्ट किया है

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