‘अपवित्र आख्यान’ उपन्यास का संवेदना पक्ष

नवीन सिंह

‘अपवित्र आख्यान’ उपन्यास का संवेदना पक्ष

Keywords : सांप्रदायीकरण, संस्कृति, धर्मनिरपेक्षता इत्यादि।


Abstract

उपन्यास ‘अपवित्र आख्यान’ का शीर्षक ही इस बात का द्योतक है कि समाज में कुछ ‘पवित्र’ है और कुछ ‘अपवित्र’। इन्हीं दो तत्वों के आधार पर समाज में विभाजन की शुरूआत हो जाती है जिसके बाद अंतर्द्वंद्व की स्थिति पैदा होती है। हिंदू के लिए मुसलमान अपवित्र है, म्लेच्छ है तो मुसलमान के लिए हिंदू ‘काफिर’। धर्म, जाति, लिंग, भाषा व अन्य सामाजिक उपकरणों (तत्वों) ने आज ‘मनुष्य’ की पहचान को धूमिल कर दिया है। हम हिंदू होते हैं, या मुसलमान होते हैं, हम ब्राह्मण होते हैं या दलित होते हैं, हम पुरुष होते हैं या स्त्री होते हैं, हम हिंदुस्तानी होते हैं या पाकिस्तानी होते हैं और हिंदी भाषी होते हैं या उर्दू भाषी होते हैं लेकिन इन सबके बीच ‘इंसान’ होना भूल जाते हैं। इन्हीं अंतर्द्वंद्वों को बहुत ही कलात्मकता के साथ उपन्यास में ढालने की कोशिश की है उपन्यासकार अब्दुल बिस्मिल्लाह ने, जिसकी पहचान इस शोध आलेख में की गयी है।

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